उत्तम चरित्र का निर्माण और निर्णय क्षमता
पिछले भाग में चरित्र निर्माण की बात कही थी कि तंत्र में उच्च चरित्र का निर्माण होता है। वो कैसे? चलो समझते है
रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।
ये पंक्ति हम जानते है रामायण से है सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में जो लोग थे उनके चरित्र हमारे मस्तिष्क में छप चुके है।
अब ये चरित्र क्या होता है? चरित्र या तो माता पिता से मिले संस्कारों से निर्माण होता है या फिर गुरु की संगत के कारण निर्माण होता है। जैसा गुरु होगा वैसा ही शिष्य बनता है।
अज्ञानवश कलयुग में माता पिता ही अपने बच्चों का चरित्र निर्माण होने नहीं देते। क्यों कि वो खुद परिस्थितियों के चलते compromise करना शुरू करते है और वही बच्चे देखते हुए बड़े होते है। जब ऐसे बच्चे बड़े होते है तो समाज में भी वैसे ही व्यवहार करते है जैसा उनके माता पिता ने किया।
कलयुग में एक व्यक्ति के २ चरित्र होते है एक वो जो वो लोगों को दिखाता है एक वो जो वो स्वयं को दिखाता है। कलयुग से पूर्व लोगों के चरित्र इतने दमदार इसलिए थे क्यों कि वो किसी भी शुल्क पर, किसी भी परिस्थिति में कठोर निर्णय और और निर्णय पर डंटे रहने का प्रण नहीं तोड़ते थे।
गंगापुत्र भीष्म की प्रतिज्ञा, राजा शिबी, राजा हरिश्चंद्र, और राजा दशरथ का वचन तो सबको पता होगा ही... अगर नहीं पता तो क्या घंटा Spiritual Awake बनेगा/बनेगी तू?
तुम आध्यात्मिक बनने योग्य हो या नहीं ये जानना है तो थोड़ा गहराई से सोच कर देखना...
जीवन के हर मोड पर आपके सामने २ पर्याय मिले होंगे जिसमें एक जो आसान होगा, परन्तु वो कम समय के लिए होगा या यूं कहो क्षणिक होगा। दूसरा जो कठिन होगा, शुरुआत में कठिनाई होगी परंतु लंबे समय तक आपके जीवन में सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे।
साधारणतः सांसारिक लोग सदैव आसान पर्याय को चुनते है ये सोचकर कि कोई बात नहीं आगे जो होगा देख लेंगे पर उनकी यही बात उनके छोटी सी समस्या का बड़ा रूप लेने का कारण बनती है। इसके पीछे की वजह होती है एक comfort लेवल में रहने की आदत, सुरक्षित महसूस करने की आदत। अभी सब ठीक हो रहा है न? ऐसे ही चलने देते है भविष्य का बादमें देखेंगे ये मानसिकता! जोखिम उठाए बिना, परिश्रम किए बिना सबकुछ मिल जाए ये अपेक्षा सांसारिक व्यक्ति के जीवन में समस्याओं को बढ़ावा देती रहती है और वो जीवनपर्यंत उन समस्याओं को सुलझाते सुलझाते एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता है।
वही दूसरी तरफ
आध्यात्मिक व्यक्ति कठिन निर्णय और कठिन मार्ग चुनने से पीछे नहीं हटता। क्यों कि वह सोचता है चाहे आज थोड़ी सी पीड़ा सहनी पड़ जाए पर कोई बात नहीं पर इस निर्णय से भविष्य में कोई समस्या खड़ी नहीं होगी, भविष्य उज्वल होगा। जो व्यक्ति संघर्ष से मुंह नहीं मोड़ता हर समस्या से लड़कर सही निर्णय लेने का साहस दिखाता है। वह भविष्य में आने वाली अनेकों लड़ाइयां पहले ही लड़ चुका होता है इसलिए वो समय के साथ निश्चिंत होकर जीवन व्यतीत करता है।
तो आपने अबतक ऐसे situations में किस मार्ग को चुना? आसान या कठिन?
कुछ लोग स्वयं को आध्यात्मिक मानते जरूर है पर वे संघर्ष से भागते है, संघर्ष से समस्याओं से भागने वाला, अपने कर्म से भागने वाला, सत्य को स्वीकार न करने वाला कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता। वे संसार की माया और मोह में भ्रमित होकर आसान मार्ग चुनते जाते है और ऐसे भ्रमित स्वयंघोषित आध्यात्मिक(?) व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम क्षणों में असहाय होकर अपने मृत्यु की प्रतिक्षा करता है, परन्तु अनुचित मार्ग अपनाने के कारण उसके दुष्कर्मों में इतनी बढ़ोतरी हो चुकी होती है कि मृत्यु भी जल्दी दर्शन नहीं देती। जहां आपने अपने वचन को, संकल्प को तोड़ा वहां आपने अपने आत्मा के टुकड़े किए, भले ही ये कोई नहीं देख रहा पर आपके अंदर की आत्मा देख रही है।
जिसे भी अपने उत्तम भाग्य का निर्माण करना है तो उसे उत्तम चरित्र का निर्माण करना ही होगा। क्यों कि सतयुग हो या कलियुग एक उत्तम चरित्र ही उत्तम भाग्य का निर्माण कर है।
अब उत्तम चरित्र का निर्माण कैसे होगा?
विचार, वाणी, कर्म, दिनचर्या इन सबके मेल से बनता है चरित्र...और इसी चरित्र का निर्माण किया जाता है USIP के उपक्रम में...
चरित्र बनाने के लिए क्या आवश्यक है? धैर्य, कर्म और शक्ति...
लोग कहते है हमारे साथ भगवान खड़े है, हमने पूर्ण जीवन केवल दूसरों का भला ही किया या हम धर्म से ही चले तो क्या हमारे साथ जैसे महाभारत में पांडवों के साथ न्याय हुआ वैसे ही होगा?
बड़े बड़े ज्ञानी लोग तो यही ज्ञान देते है कि धर्म से चलो भगवान तुम्हारा न्याय करेगा।
फिर एक सवाल आता है...
जब महाभारत में पांडवों के पक्ष में स्वयं भगवान होते हुए और पांडवों ने सदैव धर्म से निर्वाह करते हुए भी वो अधर्म से हारते रहे। पर जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ तब कृष्ण ने उनको १४ साल कड़ी तपस्या (यहां तपस्या का अर्थ केवल मंत्र जाप और पूजा से नहीं है अपनी skills को और डेवलप करने से है कर्म करने से है) करने को कहा तब वो गए और अपनी अपनी स्किल्स डेवलप की।
अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या को और ताकतवर बनाया और शिव की आराधना करके पाशपतास्त्र प्राप्त किया।
भीम ने अपने बाहुबल पर काम किया और हनुमान को प्रसन्न किया।
नकुल ने शस्त्रविद्या, सहदेव ने संप्रेषण विद्या और दोनों ने आयुर्वेद की स्किल्स पर काम किया और दोनों ने अश्विनी कुमार को प्रसन्न किया।
युधिष्ठिर ने वनवास के 14 वर्षों में धर्म, धैर्य, ज्ञान और आत्मसंयम की तपस्या की, जिससे उन्हें सत्य का बोध, यमराज का साक्षात्कार और धर्मराज के रूप में आत्मोन्नति प्राप्त हुई।
ये सब करने के बाद जब महाभारत का युद्ध हुआ तब इन्हें न्याय मिला।
इसका मतलब सिर्फ धर्म से चलना और भगवान का हमारे पक्ष में होना ही काफी नहीं। आपके साथ न्याय तभी होगा जब आप अपना सामर्थ्य से Problems को फेस करोगे और कर्म करके पात्रता सिद्ध करोगे।
अपने अपने कर्म को करते हुए अपनी स्किल्स को एक अलग लेवल पर लेकर जाना भी उतना ही जरूरी है।
लोग सालोसाल अपनी वही घिसिपिटी जिंदगी जीते है, और बोलते है हमने किसीका बुरा नहीं किया, धर्म से चलते है, भगवान भी हमारे पक्ष में है...आज हम दुखी है तो क्या हुआ अंत में न्याय हमे ही मिलेगा...बाबाजी का ठुल्लू मिलेगा..!
जब द्वापरयुग में पांडवों को भगवान के साक्षात उनके पक्ष में होने के पश्चात भी अपनी योग्यता और सामर्थ्य का प्रदर्शन करना पड़ा तो कलयुग में तो प्रत्यक्ष भगवान को तो आजतक तूने देखा भी नहीं है (सपने में और इमैजिनेशन में देखा या दर्शन हुए वो सब तेरा शेखचिल्ली के हसीन सपने है) अब बता तू किस खेत की मूली है बे?
वीर भोग्य वसुंधरा...जिसमें सामर्थ्य है, शक्ति है... वहीं न्याय को प्राप्त कर सकता है...और वही न्याय करता है। कमजोर लोग नियमों का पालन करते है और ताकतवर लोग नियम बनाते है।
देखा होगा जब आप नो पार्किंग में आपकी टू व्हीलर लगाते है तो आपकी गाड़ी उठा ले जाते है, आप हेलमेट नहीं पहने तो आपको पेनल्टी होती है। पर वही किसी पावरफुल व्यक्ति की गाड़ी खड़ी होने से ट्रैफिक जाम हो तो भी कोई कुछ नहीं करता। अगर उसने गाड़ी से किसी व्यक्ति को उड़ा भी दिया तो भी केस दर्ज नहीं होती।
उसी प्रकार कमजोर लोग अध्यात्म को समझ नहीं सकते, क्यों कि अध्यात्म समझने के लिए पहले स्वयं को जानना होता है और स्वयं को जानना, अपनी कमियों को और शक्ति को जानना और अपने उस रूप को उस कमी को, शक्ति को हर रूप में अपनाना कमजोरों के बस की बात नहीं...! क्यों कि कमजोर लोग परिस्थितियों के सामने अपने हथियार डालने में माहिर होते है और ऐसे लोग अपने स्वार्थ और कंफर्ट के लिए गधे को भी अपना बाप बना सकते है।
इसलिए वो दिखावा करते जाते है अध्यात्म का, अपनी व्याकुलता, अपनी दयनीय अवस्था छिपाने के लिए धर्म, अहिंसा, शास्त्र का सहारा लेते है। शास्त्रों की दुहाई देते है कि शास्त्र में ये लिखा है वरना मैं ये कर देता वो कर देता।
मेरा धर्म, अहिंसा और शास्त्र को विरोध नहीं है...पर केवल धर्म, अहिंसा और शास्त्रों पर चलने से कलयुग में न्याय नहीं मिलेगा आत्मविश्वास, धैर्य और सामर्थ्य भी अनिवार्य है...! और ये सब कर्म करने से ही प्राप्त होते है!
क्रमश:
शिवांश (हर्यक्ष) जमदग्नि



